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मां

सिर पर अधपके खिचड़ी बाल
और चेहरे पर
झुर्रियों का मकड़जाल लिए
‘साहेब’ बेटों की बूढ़ी माँ
अक्सर नीरव अंधकार में
अकेले बतियाती है
मूक देवी-देवताओं से…
भोर होते ही, आँख खुलने पर
अश्रुओं से नहलाती है
देव-प्रतिमाओं को,….
और दिनभर
व्याकुल यशोदा माँ सी
टटोलते हुए
नटखट कान्हा के
नन्हें वस्त्रों को,
याद करती है
पूत के बचपन के झंकृत करते मीठे बोल….
स्तब्ध गोधूलि में पुनः
थकी, बूढी देह को समेटकर
फिर से बन जाती है
पेड़ की टहनी सी वो
और उसके हिलने से
झरने लगते हैं आशीष-पुष्प
उसे भूल चुके बेटे-बहुओं के लिए……
- कान्ता घिल्डियाल