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योगी आदित्यनाथ के सहपाठी ने सुनाए बचपन के किस्से

पहली बार गांव छोड़ते समय, छोटे-छोटे पत्थर और पत्ते बैग में भरकर लाया था

राजेश पांडेय। न्यूज लाइव

“जब में पहली बार पढ़ने के लिए गांव से ऋषिकेश के लिए चला तो रास्ते में मिले छोटे-छोटे पत्थरों, पत्तों को अपने बैग में भरकर ले आया। मेरा तो गांव से बाहर निकलने का मन ही नहीं कर रहा था, पर पढ़ाई भी जरूरी थी। मेरे गांव के विद्यालय में हाईस्कूल के बाद साइंस साइड नहीं थी, इसलिए ग्यारहवीं में दाखिले के लिए ऋषिकेश के श्रीभरत मंदिर इंटर कॉलेज में दाखिला लिया गया।”

“मैं उस तरह रो रहा था, जैसे कोई दुल्हन अपना मायका छोड़कर ससुराल जाती है। हम अपने गांव को छोड़ना नहीं चाहते, पर क्या करें, शिक्षा और रोजगार के लिए यह जरूरी हो जाता है। हां, तो मैं उन पत्थरों और पत्तों को लेकर इसलिए आया, ताकि जब भी गांव की याद आए तो इनको देख लूं। मैं पहली बार आपके सामने यह खुलासा कर रहा हूं, मैंने कभी इस बात का जिक्र अपने माता-पिता से भी नहीं किया। मुझे उस शहर में पढ़ने के लिए भेजा गया था, जहां हमारी जान-पहचान का एक भी शख्स नहीं था।”

श्रीभरत मंदिर इंटर कॉलेज के अंग्रेजी शिक्षक जयकृत सिंह रावत रेडियो ऋषिकेश के गांव हमारे कार्यक्रम में बातचीत कर रहे थे। रावत यमकेश्वर ब्लॉक में अपने गांव चमकोटखाल से जुड़ी यादों को साझा कर रहे थे। शिक्षक जयकृत सिंह रावत और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ सहपाठी रहे हैं। चमकोटखाल गांव पौड़ी गढ़वाल जिले में है, जो उत्तराखंड में पलायन के मामले में सबसे आगे है।

रावत बताते हैं, “शुरुआत के दिनों में मन काफी बेचैन था, मैं सोचता था कि कब छुट्टी हो और सीधा गांव की ओर दौड़ लगाऊं। जब भी छुट्टी होती, मैं कमरे पर जाए बिना ही यूनिफॉर्म में ही बस अड्डे पर पहुंच जाता था। वक्त के साथ, गांव की यादों के सहारे ही सही, शहर में रहना सीख लिया। पोस्ट ग्रेजुएशन, बीएड किया और फिर उसी विद्यालय में शिक्षक नियुक्त हो गया, जहां पढ़ने के लिए पहली बार गांव छोड़ा था।”

शिक्षक रावत के अनुसार, “वो वॉलीबाल के खिलाड़ी हैं और गांव में जब भी जाते हैं, बच्चों को खेलने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। उन्होंने वहां बच्चों को हरसंभव सहयोग का वादा किया।”

करीब 52 वर्षीय शिक्षक रावत, गांव का एक किस्सा साझा करते हुए हंसते हैं और फिर कहते हैं, “जो भी हुआ था, वो सही नहीं था। उस घटना ने हमें अच्छा सबक सीखा दिया। हम सब बहुत छोटे थे, मैं कक्षा छह में था। गांव में दिसंबर में रामलीला का मंचन होता था। मेघनाद, रावण वध के दिन रामलीला में काफी भीड़ होती थी। हम, छह-सात बच्चों की टोली थी, जो रात को रामलीला देखती और दिन में गांव के पास ही रामलीला के प्रसंगों पर अभिनय करने की कोशिश करते। हमने, धनुष बाण बना रखे थे। बाण को कॉपी के गत्ते काटकर अगले सिरे से नुकीला बनाया था। मैं सभी में बड़ा था, इसलिए मेरी शर्त होती थी, श्रीराम की भूमिका तो मैं ही निभाऊंगा। बाकि के किरदार तुम खुद बांट लो।”

“मुझे बाण चलाना था और मेरे चचेरे भाई को ठीक उसी तरह जमीन पर गिरना था, जैसे रामलीला में बाण लगने पर गिरना होता है। पर, इस सीन को करने में, मेरा भाई यह भूल ही गया, जहां वो गिर रहा था, वहां ढलान है। उसको बाण लगा और वो ढलान पर लुढ़कने लगा। वो जोरों से कराहने लगा। हमने उसके पास जाकर देखा कि वो अपना हाथ नहीं उठा पा रहा था। मैंने और साथियों ने उसके हाथ को खींचकर सीधा कर दिया। वो तेजी से रोने लगा। हमने कहा, सबकुछ तो ठीक है, चलो घर चलो। ”

“शाम हो गई, भाई रो रहा था और हम सभी उसको यह कहकर चुप करा रहे थे कि “कुछ नहीं हुआ, तेरा हाथ हमने सीधा कर दिया। थोड़ी देर में दर्द भी रुक जाएगा।” हम घर के आंगन में बैठकर आग सेंक रहे थे। इतने में मां आ गईं, उन्होंने देखा कि भाई के हाथ में सूजन आ गई है और वो सुबक रहा है। मां को पता चल गया कि इसका हाथ फ्रैक्चर हो गया है। ”

“बस फिर क्या था,  मां ने उन्हीं धनुष बाणों से हमारी सबकी अच्छी खबर ली। भाई को गांव से लगभग तीन किमी. पैदल ले जाकर शहर के अस्पताल में ले जाया गया, जहां प्लास्टर चढ़ाया गया। आज भी उस घटना को याद करते ही एक बार तो हंसी छूट जाती है, पर दूसरे पल हम यह सोचते हैं कि इस तरह की घटनाएं नुकसान पहुंचाती हैं।”

रावत कहते हैं, “मैं जब भी अपनी सभी जिम्मेदारियों को पूरा कर लूंगा यानी 60 की उम्र में सेवानिवृत्ति के बाद, वापस गांव लौट जाऊंगा।”

वो कहते हैं, “सेवानिवृत्ति के बाद, हम सभी को अपने गांवों के लिए हमेशा कुछ न कुछ करते रहना चाहिए। जब पद होता है, पावर होती है, उस दौरान ही गांवों के लिए कुछ किया जा सकता है।”

रावत बताते हैं, “कुछ दिन पहले उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी जी से मिलने लखनऊ गए थे। उनसे बात हुई, हमने उनसे कहा, पहाड़ से पलायन न हो, इसके लिए वहां छोटे उद्योग लगाए जाएं, लोग रोजगार से भी जुड़ जाएंगे और गांवों की खेतीबाड़ी को भी संभाल लेंगे। इससे आर्थिक प्रगति होगी।”

उनका कहना है, “गांव में जाते हैं तो घरों में कुछ ही लोग दिखते हैं। युवा रोजगार और पढ़ाई सिलसिले में गांव छोड़ चुके हैं। वहां बुजुर्ग ही दिखते हैं। पहले जिन घरों में, गाय- भैंस बैल दिखते थे, वहां खूंटे खाली हो गए। रावत मानते हैं, कुछ अच्छे के लिए गांव छोड़ना खराब बात नहीं है। पर, सुनसान होते गांव मन को कचोटते हैं।”

बताते हैं, “गांव में माताजी-पिताजी रहते हैं, उनसे फोन पर बात हो जाती है। वैसे, मुझे जब भी समय मिलता है, गांव हो आता हूं।”

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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